क्या कभी तुमने एकटक लेहरों को आते देखा है?
कभी गौर से उनके सांचे पर ध्यान देना। बिल्कुल किसी ओलिंपिक तैराक की तरह आख़िर में गोल्ड मेडल लेने के लिए उभरते हैं। बीच रास्ते में, कही समुंदर के अंदर गुम हो जाते हैं। हमारी तुम्हारी आंखों से ओझल।
शुरूआत में तो लगता है जैसे अभी भोर हुआ ही हो और देखते ही देखते सांझ संवर के आ जाती है- ठीक तुम्हारे पैरों पर।
टटोल कर अपना एहसास, अपने साथ वापस समुंदर में खींच ले जाते हैं। यहीं, यहीं तो इनका स्वभाव है।
ये लहरे जो लाती है, ले जाती है।
पैरों के नीचे से फिसलती रैत, अस्तित्व के ढीलेपन की एक छाप छोड़ देता है। और तुम्हारे पास रह जाता है तो बस, एक अनुभूति। जिसकी भिन्न-भिन्न आकृति बुन कर तुम अपने अंतर को दिलासा देते हो कि हां, तुम समय से आगे हो। यादों के पंखों पर।
आशय से देखो ज़रा, क्या तुम्हें नहीं लगता ये जो लहरें है, यही यादों के पंख है। आते-जाते तुम्हारे जीवन में अनुभवों की माला पिरो जाते हैं और तुम बस रह जाते हो- स्थिर, निश्चल- किसी किनारे पर। यादों का जत्था पकड़े हुए जिसे तुम प्रेम से ‘ज़िंदगी’ कह के पुकार रहे हो।

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